एक कविता जो कॉलेज की याद दिला गयी.........
आज बरसों बाद उस चौराहे से गुज़रा हूँ
उस चाय की दूकान से
जहाँ चुस्कियाँ ठहाकों में दब जाया करती थीं
जहाँ चाय पीने से मतलब
घंटों की अनवरत बकैती से था
सौंदर्य के साक्षात्कार से था
कभी न खत्म होने वाली समस्याओं के
कल्पित समाधान से था
आँखों की हरियाली से था
तबियत की खुशहाली से था
सीनियर को दूर से देखते ही
'बनमक्खन' के दिए जाने वाले आर्डर से था
पर्स दिखा के पैसे देने के अभिनय से था
उस छोटे से इन्तेजार से था
जब डांटते हुए सीनियर बोलते
"क्योंबे! ज्यादा पैसा हो गया है क्या"
पर्स को चिरकुटई से बिन खर्चे
वापस रखने वाले
उस सूकून से था..
खुद सीनियर बनने पे भी
अड्डे से लगाव गया नही
सूद के साथ वो प्रेम
अपने जूनियरों को वापस कर दिया
आज बरसों बाद चुस्कियां तो मिलीं
ठहाके न मिले
ठिकाना तो मिला
हंसाने वाले न मिले..
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